'अयोध्या में पूरी ज़मीन हिंदू पक्ष को देना ग़लत'

 15 Nov 2019 ( न्यूज़ ब्यूरो )
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अयोध्या में पूरी ज़मीन हिंदू पक्ष को देने पर लिब्रहान आयोग के वकील अनुपम गुप्ता ने कई सवाल उठाए।

भारत में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद वरिष्ठ वकील अनुपम गुप्ता ने राम मंदिर आंदोलन से जुड़े भारतीय जनता पार्टी के नेताओं लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह से जिरह की थी। इस मुद्दे पर उस समय रहे भारत के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव से भी जिरह की थी।

15 साल पहले बाबरी ढहाए जाने के मामले की जांच कर रहे न्यायमूर्ति एम एस लिब्रहान आयोग के वकील अनुपम गुप्ता थे और उस समय उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भाजपा नेताओं से जिरह की थी।

हालांकि बाद में अनुपम गुप्ता के लिब्रहान आयोग से मतभेद हो गए और 2009 में जब आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी तो अनुपम गुप्ता ने उसकी आलोचना की थी।

बीबीसी से बातचीत में अनुपम गुप्ता ने अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर ज़ोरदार असहमति जताई है और इसकी आलोचना की है।

अनुपम गुप्ता ने अयोध्या केस पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना निम्नलिखित बातों पर की?

(1) पूरी विवादित ज़मीन को एक पक्ष (हिंदू पक्ष) को देने का फ़ैसला।

(2) 1528 से 1857 के दौरान मस्जिद के भीतर मुसलमानों के नमाज़ पढ़े जाने के सबूत को लेकर सवाल।

(3) दिसंबर 1949 में मस्जिद में मूर्तियां रखकर क़ानून का उल्लंघन करना और पूरे ढांचे को दिसंबर 1992 में ध्वस्त किया जाना।

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से आप कितना सहमत हैं?

यह फ़ैसला शानदार तरीके से इस बात की पुष्टि करता है और मैं इस बात से सहमत हूं कि एक हिंदू मूर्ति यानी राम लला क़ानूनी व्यक्ति है। इसलिए, लॉ ऑफ़ लिमिटेशन (परिसीमा क़ानून) एक नाबालिग़ राम लला विराजमान (राम के बाल्य रूप) के मामले में पैदा ही नहीं होता।

आप फ़ैसले की किन बातों से असहमत हैं?

मैं विवादित जगह के भीतर और बाहर की ज़मीन को पूरी तरह हिंदुओं को दिए जाने के फ़ैसले से सहमत नहीं हूं।

मैं मालिकाना हक़ के निष्कर्ष से असहमत हूं।

यहां तक कि बाहरी अहाते पर हिंदुओं के मालिकाना हक़ और लंबे समय से हिंदुओं के वहां बिना किसी रुकावट के पूजा करने की दलीलें स्वीकार कर ली गई हैं, लेकिन अंदर के अहाते पर आया अंतिम फ़ैसला अन्य निष्कर्षों के अनुकूल नहीं है।

कोर्ट ने कई बार यह दोहराया और माना कि भीतरी अहाते में स्थित गुंबदों के नीचे के क्षेत्र का मालिकाना हक़ और पूजा-अर्चना विवादित है।

इसे मानते हुए, अंतिम राहत यह होनी चाहिए थी कि बाहरी अहाता हिंदुओं को दिया जाता। लेकिन सवाल है कि भीतरी अहाता भी हिंदुओं को कैसे दिया जा सकता है?

अदालत का इस अहम फ़ैसले पर पहुंचना कि दोनों, भीतरी और बाहरी अहाते हिंदुओं को दिए जाएं, यह कोर्ट के निष्कर्षों के साथ ही मौलिक विरोधाभास है कि सिर्फ़ बाहरी अहाते पर ही हिंदुओं का अधिकार है।

इस फ़ैसले में यह भी पाया गया कि 1528 और 1857 के बीच विवादित स्थल पर नमाज़ पढ़े जाने के कोई साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। आपकी राय?

कोर्ट ने इसे आधार माना है और यह मुझे विचित्र लगता है। फ़ैसले में कहा गया है कि मुसलमानों की तरफ़ से इसके कोई सबूत नहीं दिए गए कि 1528 से 1857 के बीच यहां नमाज़ पढ़ी गई। अब भले ही मुक़दमे में साक्ष्यों के अभाव पर फ़ैसला किया गया है, लेकिन यह बात निर्विवाद है कि 1528 में एक मस्जिद बनाई गई जिसे 1992 में ध्वस्त कर दिया गया।

अगर ये मानें कि मुग़ल शासन के दौरान कहीं कोई चर्च, गुरुद्वारे या मंदिर का निर्माण किया गया तो क्या आप उस समुदाय से सैकड़ों वर्षों के बाद यह कहेंगे कि - आपको साबित करना होगा कि आपने वहां पूजा की थी।

भले ही, हिंदू मानते हों कि यह भगवान राम की जन्मभूमि है, लिहाज़ा यह जगह बेहद पूजनीय है। लेकिन हिंदुओं के पास भी इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि - हिंदू 1528 से 1857 के दौरान विवादित भूमि पर पूजा करते रहे थे।

लेकिन अदालत के फ़ैसले में 1528 में बनीं मस्जिद में 1857 में मुसलमान नमाज़ अदा कर रहे थे, यह साबित नहीं हो सका। माननीय अदालत ने यह धारणा किस आधार पर बना ली?

क्या इस फ़ैसले में दिसंबर 1949 और दिसंबर 1992 की घटनाओं का संज्ञान लिया गया है?

फ़ैसले में 22 दिसंबर 1949 को मुख्य गुंबद के अंदर राम लला की मूर्तियां रखने की घटना का ज़िक्र करते हुए इसे 'मस्जिद को अपवित्र करना' बताया गया, वह अवैध था।

लेकिन नतीजा यह हुआ कि उस पूरी ज़मीन को ही ज़ब्त कर लिया गया।  फ़ैसले में यह सही कहा गया है कि 22 दिसंबर 1949 से पहले वहां कोई मूर्ति नहीं थी, फिर भी इस तथ्य ने अदालती निष्कर्ष, धारणा, विश्लेषण या मूल्यांकन को प्रभावित नहीं किया।

दिसंबर 1992 में मस्जिद ढहाए जाने को यह फ़ैसला क़ानून का उल्लंघन मानता है लेकिन ये बात भावनात्मक, नैतिक या बौद्धिक रूप से कोर्ट पर असर नहीं डालती।

अदालत के सम्मान के साथ, मैं इसे बचाव के योग्य नहीं मानता। यह मूल सैद्धांतिक तथ्य हैं जिन्हें ख़ारिज नहीं किया जा सकता और यह दुखद है।

मेरी राय में, हिंदुओं को समूचे ढांचे का स्वामित्व देना अन्याय करने वाले पक्ष को पुरस्कार देने जैसा है क्योंकि वे 1949 में मूर्तियों को रखे जाने और 1992 में ढ़ांचे को तोड़ने के दोषी हैं।

विवादित स्थल के बाहरी और भीतरी अहाते को हिंदुओं को दिए जाने पर अदालत का तर्क क्या है?

कोर्ट ने अपने फ़ैसले में पूरी संरचना को एक माना है। अगर यह ऐसी ज़मीन है जिसका बंटवारा नहीं किया जा सकता था और किसी भी एक पक्ष का इस पूरी ज़मीन पर किसी एक का मालिकाना हक़ नहीं बन रहा था तो किसी भी पक्ष को इस ज़मीन का हिस्सा नहीं दिया जाना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय के पूरे सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इस तरह के महत्वपूर्ण मामले में जिस तरह की सावधानी, निष्पक्षता और संतुलन की अपेक्षा की जाती है, इस फ़ैसले में उसकी कमी है जो मुझे परेशान करती है।

मेरी राय में अपने इस फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों और आदर्शों से पीछे हट गया।

 

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