फिलिस्तीन में इसराइल की स्थापना: फिलिस्तीन का पतन, इसराइल का उदय

 18 May 2021 ( न्यूज़ ब्यूरो )
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इसराइल और फ़लस्तीनी लड़ाकों के बीच एक बार फिर संघर्ष शुरू हो गया है। जिस स्तर की गोलाबारी इस बार देखी जा रही है, वो पिछले कई सालों में नहीं हुई थी।

फ़लस्तीनी चरमपंथियों ने ग़ज़ा पट्टी से इसराइल के इलाक़े में कई सौ रॉकेट दागे हैं और इसराइल ने इसका जवाब बर्बाद कर देने वाले अपने हवाई हमलों से दिया है।

फ़लस्तीन की ओर से दागे जाने वाले रॉकेटों का निशाना तेल अवीव, मोडिन, बीरशेबा जैसे इसराइली शहर हैं। इसराइल की मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली आयरन डोम फ़लस्तीनी पक्ष के हमलों का जवाब दे रही है। लेकिन ख़तरे के सायरनों का बजना अभी रुका नहीं है।

इसराइल ने ग़ज़ा के कई ठिकानों पर हवाई हमले किए हैं। दोनों पक्षों की ओर जान और माल का नुक़सान हुआ है। दर्जनों फ़लस्तीनी मारे गए हैं जबकि दूसरी तरफ़ कम से कम 10 इसराइली लोगों की जान गई है।

यरूशलम में इसराइल की पुलिस और फ़लस्तीनी प्रदर्शनकारियों के बीच हफ़्तों से चले आ रहे तनाव के बाद ये सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ है। यरूशलम वो जगह है, जो दुनिया भर के यहूदियों और मुसलमानों के लिए पवित्र माना जाता है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दोनों ही पक्षों से शांति बनाए रखने की अपील की है। मध्य पूर्व में संयुक्त राष्ट्र के शांति दूत टोर वेन्नेसलैंड ने कहा है कि वहाँ बड़े पैमाने पर लड़ाई छिड़ने का ख़तरा है।

लेकिन इसराइल और फ़लस्तीनी लोगों का संघर्ष सालों पुराना है और इसे उसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए। इसराइलियों और फ़लस्तीनियों के बीच का विवाद इतना जटिल क्यों है और इसे लेकर दुनिया बँटी हुई क्यों है? इसे समझने के लिए हमें इसराइल और फ़लस्तीन का इतिहास जानना होगा।

संघर्ष कैसे शुरू हुआ?

बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोप में यहूदियों को निशाना बनाया जा रहा था। इन हालात में यहूदी लोगों के लिए एक अलग देश की मांग ज़ोर पकड़ने लगी। भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच पड़ने वाला फ़लस्तीन का इलाक़ा मुसलमानों, यहूदियों और ईसाई धर्म, तीनों के लिए पवित्र माना जाता था। फ़लस्तीन पर ऑटोमन साम्राज्य का नियंत्रण था और ये ज़्यादातर अरबों और दूसरे मुस्लिम समुदायों के क़ब्ज़े में रहा।

इस सब के बीच फ़लस्तीन में यहूदी लोग बड़ी संख्या में आकर बसने लगे और फ़लस्तीन के लोगों में उन्हें लेकर विरोध शुरू हो गया।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के बाद ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) का विघटन हो गया और ब्रिटेन को राष्ट्र संघ की ओर से फ़लस्तीन का प्रशासन अपने नियंत्रण में लेने की मंज़ूरी मिल गई।

लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के पहले और लड़ाई के दौरान अंग्रेज़ों ने फ़लस्तीन में अरबों और यहूदी लोगों से कई वायदे किए थे जिसका वे थोड़ा सा हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाए। ब्रिटेन ने फ्रांस के साथ पहले ही मध्य पूर्व का बँटवारा कर लिया था। इस वजह से फ़लस्तीन में अरब लोगों और यहूदियों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई और दोनों ही पक्षों के सशस्त्र गुटों के बीच हिंसक झड़पों की शुरुआत हो गई।

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) और जर्मनी में हिटलर और नाज़ियों के हाथों यहूदियों के व्यापक जनसंहार के बाद यहूदियों के लिए अलग देश की मांग को लेकर दबाव बढ़ने लगा। उस वक्त ये योजना बनी कि ब्रिटेन के नियंत्रण वाले इलाक़े फ़लस्तीन को फ़लस्तीनियों और यहूदियों के बीच बाँट दिया जाएगा।

आख़िरकार 14 मई, 1948 को ब्रिटेन की मदद से फ़लस्तीन में जबरदस्ती इसराइल की स्थापना हो गई। और यहूदियों द्वारा फ़लस्तीन को ख़त्म कर दिया गया। इसराइल के गठन के साथ ही एक स्थानीय तनाव क्षेत्रीय विवाद में बदल गया। अगले ही दिन मिस्र, जॉर्डन, सीरिया और इराक़ ने इस इलाक़े पर हमला कर दिया। ये पहला अरब-इसराइल संघर्ष था। इसे ही यहूदियों का कथित स्वतंत्रता संग्राम भी कहा गया था। इस लड़ाई के ख़त्म होने के बाद संयुक्त राष्ट्र ने एक अरब राज्य के लिए आधी ज़मीन मुकर्रर की।

फ़लस्तीनियों के लिए वहीं से त्रासदी का दौर शुरू हो गया। साढ़े सात लाख फलस्तीनियों को भागकर पड़ोसी देशों में पनाह लेनी पड़ी या फिर यहूदी सशस्त्र बलों ने उन्हें खदेड़ कर बेदखल कर दिया।

लेकिन साल 1948 यहूदियों और अरबों के बीच कोई आख़िरी संघर्ष नहीं था। साल 1956 में स्वेज़ नहर को लेकर विवाद हुआ और इसराइल और मिस्र फिर एक दूसरे के सामने खड़े हो गए। लेकिन ये मामला युद्ध के बिना सुलझा लिया गया।

लेकिन साल 1967 में छह दिनों तक चला अरब-इसराइल संघर्ष एक तरह से आखिरी बड़ी लड़ाई थी। पाँच जून 1967 से दस जून 1967 के बीच जो युद्ध हुआ, उसका दीर्घकालीन प्रभाव कई स्तरों पर देखा गया।

अरब देशों के सैनिक गठबंधन पर इसराइल को जीत मिली। ग़ज़ा पट्टी, मिस्र का सिनाई प्रायद्वीप, जॉर्डन से वेस्ट बैंक (पूर्वी यरूशलम सहित) और सीरिया से गोलन पहाड़ी इसराइल के नियंत्रण में आ गए। पाँच लाख फ़लस्तीनी लोग विस्थापित हो गए।

आख़िरी अरब-इसराइल संघर्ष साल 1973 का योम किप्पुर युद्ध था। मिस्र और सीरिया ने इसराइल के खिलाफ़ ये जंग लड़ी। मिस्र को सिनाई प्रायद्वीप फिर से हासिल हो गया। साल 1982 में इसराइल ने सिनाई प्रायद्वीप पर अपना दावा छोड़ दिया लेकिन ग़ज़ा पर नहीं। छह साल बाद मिस्र इसराइल के साथ शांति समझौता करने वाला पहला अरब देश बना। जॉर्डन ने आगे चलकर इसका अनुसरण किया।

इसराइल की स्थापना मध्य पूर्व में क्यों हुई?

यहूदियों का मानना है कि आज जहाँ इसराइल बसा हुआ है, ये वही इलाक़ा है, जो ईश्वर ने उनके पहले पूर्वज अब्राहम और उनके वंशजों को देने का वादा किया था।

पुराने समय में इस इलाक़े पर असीरियों (आज के इराक़, ईरान, तुर्की और सीरिया में रहने वाले क़बायली लोग), बेबीलोन, पर्सिया, मकदूनिया और रोमन लोगों का हमला होता रहा था। रोमन साम्राज्य में ही इस इलाक़े को फ़लस्तीन नाम दिया गया था और ईसा के सात दशकों बाद यहूदी लोग इस इलाक़े से बेदखल कर दिए गए।

इस्लाम के अभ्युदय के साथ सातवीं सदी में फ़लस्तीन अरबों के नियंत्रण में आ गया और फिर यूरोपीय हमलावरों ने इस पर जीत हासिल की। साल 1516 में फ़लस्तीन ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानिया साम्राज्य) के नियंत्रण में चला गया और फिर प्रथम विश्व युद्ध के बाद 29 सितम्बर 1923 को ब्रिटेन का फ़लस्तीन पर कब्ज़ा हो गया। जो 14 मई, 1948 को इसराइल की स्थापना के एक दिन बाद 15 मई, 1948 तक रहा।

15 मई 1948 के बाद सत्ता के सुचारु परिवर्तन की अनुमति देने के लिए, अनिवार्य शक्ति के रूप में ब्रिटेन को फिलिस्तीन की अनंतिम सरकार के रूप में संयुक्त राष्ट्र फिलिस्तीन आयोग को सौंपना था।

फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की एक स्पेशल कमेटी ने तीन सितंबर, 1947 को जेनरल असेंबली को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में कमेटी ने मध्य पूर्व में यहूदी राष्ट्र की स्थापना के लिए धार्मिक और ऐतिहासिक दलीलों को स्वीकार कर लिया।

साल 1917 के बालफोर घोषणापत्र में ब्रिटिश सरकार ने यहूदियों को फ़लस्तीन में 'राष्ट्रीय घर' देने की बात मान ली थी। इस घोषणापत्र में यहूदी लोगों के फ़लस्तीन के साथ ऐतिहासिक संबंध को मान्यता दी गई थी और इसी के आधार पर फ़लस्तीन के इलाक़े में यहूदी राज्य की नींव पड़ी।

यूरोप में नाज़ियों के हाथों लाखों यहूदियों के जनसंहार के बाद और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक अलग यहूदी राष्ट्र को मान्यता देने के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा था।

अरब लोगों और यहूदियों के बीच बढ़ते तनाव को सुलझाने में नाकाम होने के बाद ब्रिटेन ने ये मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के विचार के लिए रखा।

29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फ़लस्तीन के बँटवारे की योजना को मंज़ूरी दे दी। इसमें एक अरब देश और यहूदी राज्य के गठन की सिफ़ारिश की गई और साथ ही यरूशलम के लिए एक विशेष व्यवस्था का प्रावधान किया गया।

इस योजना को यहूदियों ने स्वीकार कर लिया लेकिन अरब लोगों ने ख़ारिज कर दिया। वे इसे अपनी ज़मीन खोने के तौर पर देख रहे थे। यही वजह थी कि संयुक्त राष्ट्र की योजना को कभी लागू नहीं किया जा सका।

फ़लस्तीन पर ब्रिटेन का नियंत्रण समाप्त होने के एक दिन पहले 14 मई, 1948 को स्वतंत्र इसराइल के गठन की घोषणा कर दी गई। इसके अगले दिन इसराइल ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए आवेदन किया और एक साल बाद उसे इसकी मंज़ूरी मिल गई। संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में 83 फ़ीसदी देश इसराइल को मान्यता दे चुके हैं। दिसंबर, 2019 तक 193 देशों में 162 ने इसराइल को मान्यता दे दी थी।

दो फलस्तीनी क्षेत्र क्यों हैं?

फ़लस्तीन पर संयुक्त राष्ट्र की स्पेशल कमेटी ने 1947 में जनरल असेंबली को रिपोर्ट सौंपी थी, उसमें ये सिफ़ारिश की गई थी कि अरब राष्ट्र में वेस्टर्न गैली (समारिया और ज्युडिया का पहाड़ी इलाका) शामिल किया जाए।

कमेटी ने यरूशलम और मिस्र की सीमा से लगने वाले इस्दुद के तटीय मैदान को इससे बाहर रखने की सिफ़ारिश की थी।

लेकिन इस क्षेत्र के बँटवारे को साल 1949 में खींची गई आर्मीस्टाइस रेखा से परिभाषित किया गया। ये रेखा इसराइल के गठन और पहले अरब-इसराइल युद्ध के बाद खींची गई थी।

फ़लस्तीन के ये दो क्षेत्र हैं वेस्ट बैंक (जिसमें पूर्वी यरूशलम शामिल है) और ग़ज़ा पट्टी। ये दोनों क्षेत्र एक दूसरे से 45 किलोमीटर की दूरी पर हैं। वेस्ट बैंक का क्षेत्रफल 5970 वर्ग किलोमीटर है तो ग़ज़ा पट्टी का क्षेत्रफल 365 वर्ग किलोमीटर।

वेस्ट बैंक यरूशलम और जॉर्डन के पूर्वी इलाक़े के बीच पड़ता है। यरूशलम को फ़लस्तीनी पक्ष और इसराइल दोनों ही अपनी राजधानी बताते हैं।

ग़ज़ा पट्टी 41 किलोमीटर लंबा इलाक़ा है, जिसकी चौड़ाई 6 से 12 किलोमीटर के बीच पड़ती है।

ग़ज़ा की 51 किलोमीटर लंबी सीमा इसराइल से लगती है, सात किलोमीटर मिस्र के साथ और 40 किलोमीटर भूमध्य सागर का तटवर्ती इलाक़ा है।

ग़ज़ा पट्टी को इसराइल ने साल 1967 की लड़ाई में अपने नियंत्रण में ले लिया था। साल 2005 में इसराइल ने इस पर अपना क़ब्ज़ा छोड़ दिया। हालांकि इसराइल गज़ा पट्टी से लोगों, सामानों और सेवाओं की आमदरफ्त को हवा, ज़मीन और समंदर हर तरह से नियंत्रित करता है।

फ़िलहाल गज़ा पट्टी हमास के नियंत्रण वाला इलाक़ा है। हमास इसराइल का सशस्त्र गुट है जो फ़लस्तीन के अन्य धड़ों के साथ इसराइल के समझौते को मान्यता नहीं देता है।

इसके उलट, वेस्ट बैंक पर फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का शासन है। फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी को अंतरराष्ट्रीय समुदाय फ़लस्तीनियों की सरकार के रूप में मान्यता देता है।

फलस्तीनियों और इसराइलियों के बीच क्या कभी कोई समझौता हुआ है?

इसराइल के गठन और हज़ारों फ़लस्तीनियों के विस्थापित होने के बाद वेस्ट बैंक, गज़ा और अरब देशों के यहाँ बने शरणार्थी शिविरों में फ़लस्तीनी आंदोलन अपनी जड़ें जमाने लगा।

इस आंदोलन को जॉर्डन और मिस्र का समर्थन हासिल था।

साल 1967 की लड़ाई के बाद यासिर अराफात की अगुवाई वाले 'फतह' जैसे फ़लस्तीनी संगठनों ने 'फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन' बनाया।

पीएलओ ने इसराइल के ख़िलाफ़ पहले जॉर्डन से और फिर लेबनान से कार्रवाई की शुरुआत की।

लेकिन इन हमलों में इसराइल के भीतर और बाहर के सभी ठिकानों को निशाना बनाया गया। इसराइल के दूतावासों, खिलाड़ियों, उसके हवाई जहाज़ों में कोई भेदभाव नहीं किया गया।

इसराइली टारगेट्स पर फ़लस्तीनियों के सालों तक हमले होते रहे और आख़िर में साल 1993 में ओस्लो शांति समझौता हुआ जिस पर पीएलओ और इसराइल ने दस्तखत किए।

फलस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन ने 'हिंसा और चरमपंथ' का रास्ता छोड़ने का वादा किया और इसराइल के शांति और सुरक्षा के साथ जीने के अधिकार को मान लिया। हालाँकि हमास इस समझौते को स्वीकार नहीं करता है।

इस समझौते के बाद फ़लस्तीनी नेशनल अथॉरिटी का गठन हुआ और इस संगठन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फ़लस्तीनी लोगों की नुमाइंदगी का हक़ मिल गया।

इस संगठन के अध्यक्ष का चुनाव सीधे मतदान के द्वारा होता है। अध्यक्ष एक प्रधानमंत्री और उसकी कैबिनेट की नियुक्ति करता है। इसके पास शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की नागरिक सुविधाओं के प्रबंधन का अधिकार है।

पूर्वी यरूशलम जिसे ऐतिहासिक तौर पर फ़लस्तीनियों की राजधानी माना जाता है, को ओस्लो शांति समझौता में शामिल नहीं किया गया था।

यरूशलम को लेकर दोनों पक्षों में गहरा विवाद है।

फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच विवाद के मुख्य बिंदु क्या हैं?

एक स्वतंत्र फ़लस्तीनी राष्ट्र के गठन में देरी, वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियाँ बसाने का काम और फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास सुरक्षा घेरा, ये वो वजहें हैं जिससे शांति प्रक्रिया में बाधा पहुँचती है।

हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने फ़लस्तीनी क्षेत्र के आस-पास इसराइल के सुरक्षा घेरे की आलोचना भी की है।

साल 2000 में अमेरिका के कैंप डेविड में जब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच सुलह कराने की आख़िरी बार गंभीर कोशिश हुई थी, तभी ये साफ़ हो गया था कि फ़लस्तीनियों और इसराइलियों के बीच शांति की राह में केवल यही बाधाएँ नहीं है।

उस वक्त इसराइल के प्रधानमंत्री एहुद बराक और यासिर अराफात के बीच बिल क्लिंटन समझौता कराने में नाकाम रहे थे। जिन मुद्दों पर दोनों पक्षों के बीच असहमति थी, वे थीं - यरूशलम, सीमा और ज़मीन, यहूदी बस्तियाँ और फ़लस्तीनी शरणार्थियों का मुद्दा।

इसराइल का दावा है कि यरूशलम उसका इलाक़ा है। उसका कहना है कि साल 1967 में पूर्वी यरूशलम पर कब्जे के बाद से ही यरूशलम उसकी राजधानी रही है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे मान्यता नहीं मिली हुई है। फ़लस्तीनी पक्ष पूर्वी यरूशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहता है।

फ़लस्तीनियों की मांग है कि छह दिन तक चले अरब-इसराइल युद्ध यानी चार जून, 1967 से पहले की स्थिति के मुताबिक़ उसकी सीमाओं का निर्धारण किया जाए जिसे इसराइल मानने से इनकार करता है।

यहूदी बस्तियाँ इसराइल ने क़ब्ज़े वाली ज़मीन पर बसाई हैं। अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ये अवैध हैं। वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में इन बस्तियों में पाँच लाख से ज़्यादा यहूदी रहते हैं।

फ़लस्तीनी शरणार्थियों की संख्या वास्तव में कितनी है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि कौन इसे गिन रहा है। पीएलओ का कहना है कि इनकी संख्या एक करोड़ से अधिक है। इनमें आधे लोग संयुक्त राष्ट्र के पास रजिस्टर्ड हैं। फ़लस्तीनियों का कहना है कि इन शरणार्थियों को अपनी ज़मीन पर लौटने का हक़ है। लेकिन वो जिस ज़मीन की बात कर रहे हैं, वो आज का इसराइल है और अगर ऐसा हुआ तो यहूदी राष्ट्र के तौर पर उसकी पहचान का क्या होगा।

क्या फ़लस्तीन एक देश है?

संयुक्त राष्ट्र फ़लस्तीन को एक 'गैर सदस्य-ऑब्ज़र्वर स्टेट' के तौर पर मान्यता देता है।

फ़लस्तीनियों को जनरल असेंबली की बैठक और बहस में हिस्सा लेने का अधिकार है ताकि संयुक्त राष्ट्र के संगठनों की सदस्यता लेने की उनकी संभावना बेहतर हो सके।

साल 2011 में फ़लस्तीन ने पूर्ण सदस्यता के लिए आवेदन किया था लेकिन ये हो नहीं पाया।

संयुक्त राष्ट्र महासभा के 70 फ़ीसदी से ज़यादा सदस्य फ़लस्तीन को एक राज्य के तौर पर मान्यता देते हैं।

अमेरिका इसराइल का मुख्य साथी क्यों हैं? फ़लस्तीन को किनका समर्थन हासिल है?

इसके लिए अमेरिका में मौजूद इसराइल समर्थक ताक़तवर लॉबी की अहमियत समझनी होगी। अमेरिका में जनमत भी इसराइल के रुख़ का समर्थन करता है।

इसलिए किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का इसराइल से समर्थन वापस लेना हकीकत में नामुमकिन है।

इसके अलावा दोनों देश सैन्य सहयोगी भी हैं। इसराइल को अमेरिका की सबसे ज्यादा मदद मिली है। ये मदद हथियारों की ख़रीद और पैसे के रूप में मिलती है।

हालाँकि साल 2016 में जब सुरक्षा परिषद में इसराइल की यहूदी बस्तियाँ बसाने की नीति की आलोचना पर वोटिंग हो रहे थे, तो ओबामा प्रशासन ने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल नहीं किया था।

लेकिन व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद दोनों देशों के रिश्तों को नईं ज़िंदगी मिली। अमेरिका ने अपना दूतावास तेल अवीव से हटाकर यरूशलम स्थानांतरित कर लिया। इसके साथ ही अमेरिका दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया जिसने यरूशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दी।

अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में राष्ट्रपति ट्रंप धनी अरब देशों से इसराइल के रिश्ते सामान्य करने की दिशा में कामयाब रहे थे।

हालांकि बाइडन प्रशासन ने सत्ता संभालने के बाद से ही इसराइल फ़लस्तीन के जोखिम भरे संघर्ष से दूरी बनाने की रणनीति अपनाई है। जानकारों का कहना है कि बाइडन प्रशासन इसे ऐसी समस्या के तौर पर देखता है जिसमें बड़ी राजनीतिक पूंजी की ज़रूरत है और जो हासिल होगा, वो पक्का नहीं है।

इसराइल को अमेरिकी समर्थन जारी है लेकिन बाइडन प्रशासन की कूटनीति में एहतियात दिखता है। हालांकि मौजूदा हिंसा के बाद बाइडन को अपनी पार्टी के वामपंथी धड़े की आलोचनाओं का सामना करना पड़ सकता है जो इसराइल के आलोचक रहे हैं।

दूसरी तरफ़ तुर्की, पाकिस्तान, चीन, भारत, मलेशिया, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र, सीरिया, ईरान और कई अरब देश फ़लस्तीन के मुद्दे पर फ़लस्तीनी लोगों के साथ हैं। अरब देशों में फ़लस्तीनियों के लिए सहानुभूति की भावना है।

शांति का रास्ता क्या बचता है और इसके लिए क्या करना होगा?

विशेषज्ञों का कहना है कि स्थाई शांति के लिए इसराइल को फ़लस्तीनियों की संप्रभुता स्वीकार कर लेनी चाहिए जिसमें हमास भी शामिल हो। उसे ग़ज़ा से नाकाबंदी ख़त्म कर लेनी चाहिए और वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में पाबंदियाँ भी उठा लेनी चाहिए।

दूसरी तरफ़ फ़लस्तीनी गुटों को स्थाई शांति के लिए हिंसा का रास्ता छोड़ना होगा और इसराइल को स्वीकार करना होगा।

सीमाओं, यहूदी बस्तियों और फलस्तीनी शरणार्थियों की वापसी के मुद्दे पर दोनों पक्षों को स्वीकार्य समझौते तक पहुँचना होगा।

 

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