कोरोना वैक्सीन: क्या कोविड-19 टेस्ट का नतीजा ग़लत भी आ सकता है?

 07 Sep 2020 ( न्यूज़ ब्यूरो )
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वैज्ञानिकों का कहना है कि मानव शरीर में कोरोना वायरस का टेस्ट करने का जो सबसे महत्वपूर्ण तरीका है वो इतना संवेदनशील है कि इसमें पहले हुए संक्रमण के मृत वायरस या उनके टुकड़े भी मिल सकते हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि कोरोना वायरस से व्यक्ति क़रीब एक सप्ताह तक संक्रमित रहता है लेकिन इसके बाद भी कई सप्ताह तक उसका कोरोना टेस्ट पॉज़िटिव आ सकता है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इसका कारण ये भी हो सकता है कि कोरोना महामारी के पैमाने पर जिन आंकड़ों की बात हो रही है वो अनुमान से अधिक हों।

हालांकि कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि कोरोना की जांच के लिए एक भरोसेमंद जांच का तरीका कैसे निकाला जाए जिसमें संक्रमण का हर मामला दर्ज हो सके, ये अब तक तय नहीं हो सका है।

इस शोध में शामिल एक शोधकर्ता प्रोफ़ेसर कार्ल हेनेगन कहते हैं टेस्ट के नए तरीके में ज़ोर वायरस के मिलने या न मिलने पर न होकर एक कट-ऑफ़ पॉइंट पर यानी एक निश्चित बिंदु पर होना चाहिए जो ये इशारा करे कि उस मात्रा में कम वायरस के होने से टेस्ट का नतीजा नेगेटिव आ सकता है।

वो मानते हैं कोरोना वायरस के टेस्ट में पुराने वायरस के अंश या टुकड़े मिलना एक तरह ये समझाने में मदद करता है कि संक्रमण के मामले क्यों लगातार बढ़ रहे हैं जबकि अस्पतालों में पहुंच रहे लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है।

ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी के सेन्टर ऑफ़ एविडेन्स बेस्ड मेडिसिन ने इस संबंध में 25 स्टडी से मिले सबूतों की समीक्षा की, पॉज़िटिव टेस्ट में मिले वायरस के नमूनों को पेट्री डिश में डालकर देखा गया कि क्या वायरस की संख्या वहां बढ़ रही है?

इस तरीके को वैज्ञानिक 'वाइरल कल्चरिंग' कहते हैं जो ये बता सकता है कि जो टेस्ट किया गया है उसमें ऐसा एक्टिव वायरस मिला है जो अपनी संख्या बढ़ाने में सक्षम है या फिर मृत वायरस या उसके टुकड़े मिले हैं जिन्हें लेबोरेट्री में ग्रो नहीं किया जा सकता।

बीबीसी स्वास्थ्य संवाददाता निक ट्रिगल का विश्लेषण

महामारी की शुरूआत के दौर से ही वैज्ञानिक वायरस टेस्ट से जुड़ी इस मुश्किल के बारे में जानते हैं और ये एक बार फिर दर्शाता है कि क्यों कोविड-19 के जो आंकड़े सामने आ रहे हैं वो सही आंकड़े नहीं है?

लेकिन इससे फर्क क्या पड़ता है? महामारी की शुरुआत में आंकड़े कम उपलब्ध थे लेकिन जैसे-जैसे समय गुज़रता गया अधिक आंकड़े मिलते गए। टेस्टिंग और आर नंबर को लेकर बड़ी मात्रा में आ रही जानकारी से कंफ्यूज़न बढ़ा है।

लेकिन ये बात सच है कि पूरे ब्रिटेन में देखें तो कोरोना संक्रमण के मामले कई यूरोपीय देशों की तुलना में कम है। जहां तक बात स्थानीय स्तर पर संक्रमण के फैलने की है मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि उसे रोकने में हम कामयाब हुए हैं। और ये तब है जब गर्मियां आने के साथ लॉकडाउन में थोड़ी बहुत ढील दी जानी शुरू हो गई है।

लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि आगे क्या होगा, सर्दियों के दिन आने वाले हैं और स्कूलों में भी बच्चों की पढ़ाई शुरू हो रही है।

ब्रिटेन में स्वास्थ्यकर्मी ये मान रहे हैं कि देश फिलहाल मज़बूत स्थिति में है और ऐसा लग रहा है कि आने वाले महीनों में संक्रमण के अधिक मामलों से अब बचा जा सकता है।

लेकिन इसे लेकर सरकार और लोग सभी सावधानी भी बरत रहे हैं क्योंकि माना जा रहा है कि इसे गंभीरता से न लेने पर महामारी का एक और दौर शुरू हो सकता है।

कोविड-19 का टेस्ट कैसे होता है?

बताया जाता है कोरोना वायरस टेस्टिंग का एक कारगर तरीका पीसीआर स्वैब टेस्ट है जिसमें कैमिकल के इस्तेमाल से वायरस के जेनेटिक मटीरियल को पहचानने की कोशिश की जाती है और फिर इसका अध्ययन किया जाता है।

पर्याप्त वायरस मिलने से पहले लेबोरेटरी में परीक्षण नमूने को कई चक्रों से होकर गुजरना पड़ता है।

कितनी बार में वायरस बरामद किया गया ये बताता है कि शरीर में कितनी मात्रा में वायरस है, वायरस के अंश हैं या फिर पूरा का पूरा वायरस है।

ये इस बात की ओर भी ईशारा करता है कि जो वायरस शरीर में है वो कितना संक्रामक है। माना जाता है कि अगर टेस्ट करते वक़्त वायरस पाने के लिए अधिक बार कोशिश हुई तो उस वायरस के लेबोरेटरी में बढ़ने की गुंजाइश कम होती है।

ग़लत टेस्ट नतीजे का जोखिम

लेकिन जब कोरोना वायरस के लिए आपका टेस्ट होता है तो आपको अक्सर हां या ना में जवाब मिलता है। नमूने में वायरस की मात्रा कितनी है और मामला एक्टिव संक्रमण का है या नहीं। टेस्ट से ये पता नहीं चल पाता।

जिन व्यक्ति के शरीर में बड़ी मात्रा में एक्टिव वायरस है और जिसके शरीर के नमूने में सिर्फ मृत वायरस के टुकड़े मिले हैं - दोनों के टेस्ट के नतीजे पॉज़िटिव ही आएंगे।

प्रोफ़ेसर हेनेगन उन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने कोरोना से हो रही मौतों के आंकड़े किस तरह से दर्ज किए जा रहे हैं उसके बारे में जानकारी इकट्ठा की है। इसी के आधार पर पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड ने आंकड़े रखने के अपने तरीके में सुधार किया है।

उनके अनुसार अब तक जो तथ्य मिले हैं उसके अनुसार कोरोना वायरस के संक्रमण का असर ''एक सप्ताह के बाद अपने आप कम होने लगता है।''

वो कहते हैं कि ये देखना संभव नहीं होगा कि टेस्ट किए गए हर नमूने में ऐक्टिव वायरस मिला या नहीं। ऐसे में यदि वैज्ञानिक टेस्टिंग में वायरस की मात्रा को लेकर कोई कट-ऑफ़ मार्क की पहचान कर सकें तो ग़लत पॉज़िटिव नतीजे आने के मामलों को कम किया जा सकता है।

इससे पुराने संक्रमण के मामलों के पॉज़िटिव आने की दर कम होगी और कुल संक्रमण के आंकड़े भी कम हो जाएंगे।

प्रोफ़ेसर हेनेगन कहते हैं कि इससे कई ऐसे लोगों को मदद मिलेगी जो टेस्टिंग के आधार पर खुद को बिना वजह क्वारंटीन कर रहे हैं और कोरोना महामारी की मौजूदा वास्तविक स्थिति को समझने में मदद मिल सकती है।

पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड का मानना है कि कोरोना वायरस टेस्ट का सही नतीजा वायरस कल्चर के ज़रिए मिल सकता है।

संगठन का कहना है कि वो हाल में इस दिशा में विश्लेषण भी कर रहे हैं और ग़लत पॉज़िटिव नतीजों के जोखिम से बचने के लिए लेबोरेटरीज़ के साथ मिल कर काम कर रहे हैं। उनकी ये भी कोशिश है कि टेस्टिंग के लिए कट-ऑफ़ प्वाइंट कैसे तय किया जा सकता है?  

हालांकि संगठन का ये भी कहना है कि कोरोना की टेस्ट के लिए कई अलग तरह के टेस्टिंग किट इस्तेमाल में हैं, इन किट्स के इस्तेमाल से मिलने वाले नतीजों को अलग तरीकों से समझा जाता है इस कारण एक निश्चित कट-ऑफ़ प्वाइंट पर पहुंचना मुश्किल है।

लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के प्रोफ़ेसर बेन न्यूमैन कहते हैं कि मरीज़ के नमूने को कल्चर करना कोई 'छोटा काम' नहीं है।

वो कहते हैं, ''इस तरह की समीक्षा से ग़लत तरीके से सार्स-सीओवी-2 वायरस के कल्चर को इसके संक्रमण फ़ैलाने की संभावना से जोड़ कर देखा जा सकता है।''

मार्च में कोरोना वायरस से बुरी तरह प्रभावित इटली के इलाक़े एमिलिया-रोमाग्ना में काम करने वाले महामारी विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर फ्रांसेस्को वेन्टुरेली का कहना है, ''ये निश्चित नहीं है'' कि कोरोना से ठीक होने के बाद वायरस कितनी देर तक संक्रामक रह सकता है।

वे कहते हैं कि वायरल कल्चर पर की गई कुछ स्टडीज़ के अनुसार क़रीब 10 फ़ीसदी लोगों के शरीर में संक्रमण से ठीक होने के आठ दिन बाद भी वायरस पाए गए हैं।

वो कहते हैं कि कोरोना महामारी का पीक इटली में ब्रिटेन से पहले आया था और यहां ''कई सप्ताह तक हम कोरोना संक्रमण के मामलों का वास्तविकता से ज़्यादा आकलन कर रहे थे। ऐसा इसलिए क्योंकि जिन लोगों को पहले संक्रमण हो चुका था ठीक होने के बाद भी उनके नतीजे पॉज़िटिव आ रहे थे।''

लेकिन जैसे-जैसे पीक कम होता जाता है ये स्थिति भी सुधरती जाती है।

लंदन के इंपीरियल कॉलेज के प्रोफ़ेसर ओपेनशॉ कहते हैं कि पीसीआर टेस्ट ''शरीर में बच गए वायरस के जेनेटिक मटीरियल का पहचान का'' बेहद संवेदनशील तरीका है।

वे कहते हैं, ''ये टेस्ट कोरोना वायरस की संक्रामकता का सबूत नहीं है।  लेकिन डॉक्टरों का मानना है कि इस बात की संभावना बेहद कम है कि संक्रमण के दस दिन बाद भी व्यक्ति से शरीर में वायरस संक्रामक हो।''

 

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